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सोमवार, 15 नवंबर 2010

तुम लौट आओ


ये षबनमी धूप का आलम,
बलखाती फिजा,
खुषगवार मौसम,
कुहरे का चिलमन
सब तुम्हें बुलाते हैं,
जानती हो.....
गंगा घाट पर अब भी जुटते हैं
कलरव करते पंक्षी,
वो लंगरी मैना भी आती है,
फूदक- फूदक तुम्हें ढ़ूढती,
वो मंदिर की घंटियां
मस्जिद के अजान,
गिरिजाघर वाली सिस्टर भी,
गुब्बारे वाला नन्हा भोलू
अब भी उसी मांल के नीचे
बेचता है गुब्बारे,
तुम्हारे पसंदीदा गोलगप्पे की दुकान पर
वैसी ही भीड़ जुटती है,
फैसन षोरूम में कई नई डेसें टंग गई है
एक, चटक गुलाबी सी
तुम पर खुब फवेगी,
पार्क में लाल गुलाब फिर
खिलखिला आए हैं,
रंग- बिरंगी तितलियां भी आती हैं,
तुम्हारे लाये खरगोष,
डइंगरूम का गुलदस्ता,
जार मंे तैरती मछलियां,
इत्र की सीसी
और तुम्हारा मेकअप का सामान,
सबको इंतजार है तेरा
कोयल लौट आई है,
अपनी मीठी कूक के साथ,
राग और रंग भी लौट आये हैं,
बस तुम लौट आओ
तो फागुन झूम जाए।

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