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मंगलवार, 9 नवंबर 2010

मेरी दुनिया


जब से तुम गई हो,
मैंने नहीं किए कभी भी
बंद अपने घर के दरबाजे
इसी उम्मीद के साथ कि
तुम लौट आओगी,
इसी आस में टकटकी लगाए
निहारता रहता हूं,
दरवाजे और खिड़कियों को
दिन-रात,सुबह- शाम।
फूलों के खिलखिलाने में
महसूसता हूं तुम्हारी गंध,
भवरों के क्रंदन में तेरा संगीत,
चिडियों में गीत,
जब हवा लहराकर बहती है तो
लगता है कि तुम बगिया में बैठ,
छमका रही हो अपनी पायल,
ओस की बूंद तेरे रेशमी छुअन
का एहसास दिलाती है,
जाड़े की धूप
तुम्हारी खिलखिलाहट सी लगती है,
मुझे मालूम है कि तुमने
अपनी अलग दुनिया बसा ली है,
पर मेरी दुनिया में तो
हमेशा तुम..... तुम.... बस तुम....
रचती बसती हो,रचती बसती रहोगी ।

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